Sunday, June 24, 2012

श्याह काली हैं वो,
 
पर बेहद खूबसूरत.
 
जिस उम्र में हैं,
 
उसमें हर्फ़ नहीं.
 
आँखों के नीचें, रात का ज़िक्र,
लड़की को औरत बना सकते हैं , काले घेरें.
 
हाथ, आँखें, हँसना, बातें,
 
सब लड़कियों जैसी.
पाँव की जाली वाली जूतियाँ भी.
 
हर शब्द सुना हुआ,
 
कुछ नया नहीं.
 
जेहन में हैं.
 
वो, उसकी हँसी, नखरा .....
 
खफा हूँ खुद से.
 

Tuesday, June 5, 2012

वो किताबघर से बहार आया था,
पान थूका और खून बहार.
सोचों अगर वो रोने लगे,
या पूछें खुद से,
की मैं पैदा क्या इस दिन के लिए हुआ था.
उससे याद आया की ज़िन्दगी कितनी हाथ में थी.
आसान.
खून तो आज आया, रोज दोड़ता था अन्दर,
तब तो ख्याल नहीं आया.
काश में सबसे मुंह पर यही खून ठुक दू.
वो जिरह कर रही हैं मुझसे,
रोती हैं.
कहती हैं,मुझे इल्म ही नहीं,
की वो मुझे घंटो घूरती रहती हैं,
बावली.

रो क्यों रही हैं,
चूम क्यों नहीं लेती.
असलियत इस ताल्लुक की ये हैं,
की कोई रहम नहीं करता.
लिखने की पड़ी हैं मुझे,
और ताल्लुक सांस ले रहा हैं,
मेरे हाथ को तकियां बनाये.
एक अघोरी के ,शिव के,
उसका सपना ,जो अब मैं हूँ.
क्या वो सच मैं मेरे लिए,
इस पन्दरहवी मंजिल से कूद सकती हैं.
मेरे बालों को घंटो घुन्ध्ती रही,
उसका जिस्म चिपकता रहा मुझसे,
और वो ऐसे ही सो गयी.
पसीने से तर-बतर,
मेरी छाती से चिपकी हुई.
छोड़ के चला जाऊ?
.
.
.
.
हाँ
मैंने उसे उस दिन के बाद कहा देखा.
जल जल जलता रहा,
शब्द चुतियां हैं.
और मैं हूँ पेन धारी बाबा.
जो मैं लिखता हूँ,
वो सच जो तुम समझ लो,
तो भरम हो जाये,
की मैं नंगा घूमता हूँ.
समाज ने बांध दिया हैं शरीर,
औरतों को दी ब्रा, मर्दों को लंगोट,
ताकि वो खुद को छुपा सके.
इनका और कोई काम नहीं.
बंद नहीं सकता मैं,
फालतू की चीज़ों पे खर्च नहीं कर सकता.
बंद दरवाजे से पार देख सकता हूँ मैं,
बंद दरवाजे आंखों में होते हैं.
तुम दरवाजे के पार कुछ भी देख सकते हो,
माँ देख सकते हो,
नाग का सेक्स,
या खूटे से बंधी हुई बतक.
सुन सकते हो तुम सब,
युही बोलते हैं की,
रौशनी आवाज से तेज़ चलती हैं.
नज़र ख़राब चीज़ हैं,
नज़र हमेशा जल जाती हैं,
काले टिक्के को आँखों के अन्दर कैसे लगाये कोई,
अफीम ना खाए कोई,
सड़क पर नंगा नाचे,
खुद को समझ जाये कोई.
ये साकल किसने बनायीं,
मैं दरवाजे के उस पार देख सकता हूँ,
बेहतर ना हो जो,
दरवाजा खोल जाये कोई.

मुझे नहीं पता में क्या लिखूंगा,
 अब.
 हवा, शायरी या प्रेम नहीं,
 खुद लिखूंगा खुद को.
 रात बात करने आती हैं,
 रात रोज काली नहीं,
 रात शीशें में देखती हैं,
 खुद को.
 शीशें के उस पार लिखूंगा,
शायद.
 सब झूठ लिखूंगा, बेशक.
 पर तुझे लिखूंगा.
 में उससे, वो मुझसे डरता हैं,
 चूहा कही का.
 जान को मौत लिखूंगा अब,
 फांसी को पीली टैक्सी,
 और प्यार को तु लिखूंगा.
 शीशें के उस पर हूँ,
मैं,
 कभी तो सच लिखूंगा.
बरसाती से उठ कर भागी थी वो,
 मुझे नंगी औरतें बहुत उदास लगती हैं.
 कुछ भी तो नहीं बचा अब,
 हर एक गन्दी आदत, हर एक आलस का हिसाब,
तेरी चोटी से होता हुआ गया हैं जमी तक.
 क्या करोगी अब, जो मैं तुम्हें खुबसूरत ना कहू.
 क्या हो, जो मैं उठ जाऊ.
 निकल जाऊ कमरे से बहार.
 लो,
 मैं उठा और निकल गया बहार .
 खुद को समेटों, कपड़े पहनो.
 काश आंसू बन जाये, आँखों के लाल डोरे.
 इससे बस इश्क था मुझसे.
 औरत उम्दा हैं.

Sunday, May 6, 2012

पता तो चले

साईकिल ठीक करने के बहाने,
वो रोज देखता था मुझको.
यही ख़राब होती थी उसकी साईकिल.
शायद चार रोज के पैसे जोड़,
घंटी लगवाई थी नयी,
जो मुझमें बजती थी.
 
भरम होता था मुझे उसका,
उसकी साईकिल ख़राब होने का,
घंटी का.
कई आवाजें खून को दिल से बेहतर चलाती हैं.
कुछ ना कुछ सोचती ही रहती थी.
शायद एक साईकिल मेरे पास भी होती,
पता लगाती वो करता क्या हैं.
 
उसकी पतलून पर लगा रंग,
और दो कमीजों के अलावा,
क्या हैं.
कोमी हैं,या पेंटर,
या पुताई करता हैं या अख़बार बाटता हैं.
क्या करूँ,कौन हैं,
समझ में नहीं आता.
 
रोज ही तो आता हैं,
साईकिल ख़राब करने.
एक छोटा सा कागज़ भी नहीं फैका,
बस तकता रहता हैं.
कुछ काम तो हो,बेशक इश्क हो,
पता तो चले.
 

जेब

अब ये शहर भी छोड़ दूंगा मैं,
कभी-कभी सांस नहीं आती.
खुद में खोना भूल गया हूँ,
तनख्वाह हैं.
अपनी जेब कैची से काट दूंगा.
किसी सिली दिवार से होंठ लगा लूँगा,
के सीलन जो कभी थी मुझमें.

मैं पत्थर पर बैठकर आसमान ताकना चाहता हूँ.
नदी की आवाज हो कानो में.
में बस नहीं पाउँगा जंगल में,
ये शहर मुझे छोड़ना ही पड़ेगा.
जेब काटनी होगी.

भगोड़ा बन कर ही जानवर जी सकता हैं,
या मरकर.
मरना और सांस लेना,
दोनों काम एक साथ नहीं कर पाउँगा.
नदी से बातें करना चाहुंगा,
अगर जियूँगा तो जियूँगा
और अगर मर गया तो सिर्फ ,
मर जाना चाहुंगा.
जेब काटना चाहुंगा.

काम से काम तक का सफ़र,
कमरें के अन्दर, कमरें के बाहर.
मैं सब मैदान में करना चाहुंगा.
सब लिख कर बहाऊंगा,
सागर मैं खुद को धुंद्नें जाऊंगा.

खैर अभी कही हूँ दिल्ली से बाहर,
ट्रेन पकडनी हैं पांच बजे की,
चलना चाहुंगा.

Thursday, May 3, 2012

.

शिकन हैं हाँ,
और भरम किसी लोक का.
मुझे देखते ही वो घुटनों के बल चलने लगती.
हर कहानी का किरदार मैं ही हूँ,
अभी घुटनों पर हूँ.

स्याह बावली देखी ना होगी,
अभी तक चाँद सूरज नहीं उतरें थे.
बचपन को समझा था,
प्रेत से बचने का टोटका.
इन मंदिरों में अब तलक,
उसकी सांसें,घंटियों पर हाथ की छाया,
और तालाब में देह उसकी,
पकड़ सकते हो.
वो बस अब हर जगह हैं,
आकर और समझ से ऊपर.

किसी ने कई बार देखा उसे,
तालाब में नहाते "नग्न"
हाँ नग्न ,
चाँद सूरज पहने थे उसने.
सफ़ेद साड़ी पहनने से क्या घटता.
पूरी नग्नता से,
धीमी मुग्ध नग्नता ज्यादा कामुक होती हैं.
साड़ी पड़ी थी वहां,जहाँ वो नहीं थी.
चलती थी घुटनों के बल.
नाचते मोर के पंख उधेड़ के,
उसके कूल्हों में जड़ दे कोई.
पाँव भी खूब हैं, पानी जैसे.
नाचने से कहा रुक पाती वो.

औरत ही हैं ये,
अभी अभी मेरे सपनो से कागज़ पर उतरी हैं.
अजीब बात हैं मैं लिखना चाहता हूँ
आज से पहले तो मैंने कभी अपने शब्द नहीं काटें.
कभी नहीं सोचा की ये अच्छा नहीं लिखा,
मैं लिखने के लिए लिखता हूँ आजकल.
 
शांत हैं चित,
ना कुछ कहने को,ना सुनने को,
ना लताडने को,
गालियाँ भी नहीं देता,
शराब भी नहीं पीता,
औरतों से दिल नहीं बहलता,
पागल भी नहीं हूँ अब.
सब बेवजह करता हूँ.
मेरा साया सो रहा हैं,
मैं नहीं.
 
कितनी समझ हैं सबमें,
हर एक की समझ,हर एक से ज्यादा,
काश कोई मेरी समझ खरीद ले,
जो मुझे मुफ्त खरीदेगा,
वो ही असली खरीदार हैं.
मैं उससे देखना चाहुंगा,
उसकी आँखें फोड़ना चाहुंगा.
 
जानवर बनने का अपना मजा हैं.
अंधे सब देखना चाहते हैं,
बहरें सब सुनना.
मैं सोना चाहता हूँ.
मैं हूँ,
खुद का स्वपन.

Tuesday, May 1, 2012

इजहार किससे करूँ,कोई नहीं,
तु हैं,तुझे कुछ पता नहीं.
 
तुझसे कुछ भी कहूँ,लगता हैं तुझे,
शायरी हैं.
 
सुबह-शाम,दुनिया के बाद,
ले फिर रात आई हैं.
 
खोल दे खुद को ,तुझे देख नहीं सकता,
तेरी उँगलियों मैं जमें खून ,की खुशबू आई हैं.
 
इतने सवाल,कभी खुद से भी नहीं होते,
तुने औरत सी जूस्तजू,बच्चें सी नमी पायी हैं.
 
कोई भी हैं,कही भी हैं,चाहें तु हों,
मैंने खुदा से सिर्फ,खुदखुशी पायी हैं.
 
हज़ार हर्फों का मतलब एक,
हर्फों ने बस दुनिया बसाई हैं.
 
कभी आके,सामने बैठना तुम,
मैं भी देखू,किसने ये ग़ज़ल लिखवाई हैं.
 
ये ज़िन्दगी हैं मौत का मुकदर"शेर",
ये ज़िन्दगी सबने पायी हैं.
 
किसी के बस का काम नहीं हैं,
मेरी रूह ,मैंने खुद उलझाई हैं.
मैं खुद दिखता हूँ आईने में,मुझको,
मैं टुटा हुआ हूँ,आइना झूठा हैं.
 
ख़ामोशी हैं, मैं घर की सोचता हूँ,
काश दुनिया, मुझे मरा समझ ले.
 
इबादत किसकी करूँ,कोई नहीं,
क्यों ना माँ मेरी,मुझे कोख में दबोच ले.
 
वेह्सी बन गया हूँ मैं,एक अव्वल वेह्सी,
मेरे पास कोई आये,मुझे समझ ले.
 
इस्तेहारों की तरह लोग तकते हैं मुझको,
कभी तो जरुरत का सामान,डब्बे मैं छोड़ दे.
 
औरतों का जिस्म अब खाने को भी नहीं ,
"शेर" चलो,दारू भी छोड़ दे.
कुछ ना कुछ नुक्स ही दिखता हैं मुझे खुद में,
एक इंसान ना बन पाया मैं.
 
बरहाल याद हैं इतना,के दो जिस्म थे,
एक को भी ना छोड़ पाया मैं.
 
हर मोहब्बत बिस्तर पर ख़तम हुई,
और बिस्तर से ना उठ पाया मैं.
 
मज्मो का कारवां,ख़ुशी की महफ़िलें, में कभी कहा पूरी पी,
मैकदो में बस, मैं को ही पी पाया मैं.
 
किस बरस का गम,किस बरस बरसा,
सोता रहा,आँखें ना खोल पाया मैं.
 
इन फसलों के बावजूद,तेरी बधाईयाँ,
के कुछ ना बन पाया मैं.

Wednesday, April 25, 2012

जनम शायर कर शेर,फासला इतना सा हैं,
वह हैं वाईज,यहाँ दूसरा सा हैं.


कोई लुट गया,खरीद-फरोक्त ये,
कोई दुंद्ता,मसला सा हैं.


किस का दर्द शायर को पता,
कही जलता शायर सा हैं.


किसी मुक्क़दस मोड़ पे ,जी लेंगे ज़िन्दगी,
अभी रास्ता नया सा हैं.


किसी ने पुछा जो मेरा मक़ाम,
वो शक्स ,मेरा सा हैं.


सिगरटों के बाद ज़िन्दगी बुझ गयी,
ये आशकी ,धुआं सा हैं.


मैं पुकारू तुम्हें,तुम्हारी तरह,
कोई आदमी दिखा सा हैं.


मजबुरीयाँ ,इन फसलो की हया तो,
मुसीबतों में भी,जनाजा जला तो हैं.


मैंने पुछा की कहा की हो तुम,
तुमने,हमें सुना तो हैं.


चलो अब मुस्कुराकर कर सही,
मुस्कुराने का जज्बा तो हैं.


रो लो और जी दो ये लम्हा,
ये लम्हा,तुम्हें मिला जो हैं.

जिसने पीने के बाद सोना सिख लिया,
अब सिखने को बचा क्या हैं!

Psychoanalysis

1.

Man with too many accessories,
has to live on reality.
Rusted teeth and concious glares,
need to be wrapped in beads aswell.
Long hair and iron bolted belt,
yell him to seek an adventure.
Women,could fall for him,
if he could see him.

His pretty modern phone,
expensive cover is the prized possesion.
Yes,he is alone And his finger splits truth,
inside his ear,lust revoked.

Indeed.He is a man with brown shoes,
sitting in front of a hot ugly woman.
He knows what she can offer him,
this man needs nothing, but the beads.


2.

Habit of reading,
nothing to do with knowing but telling.
Psychoanalysis is firm from face,
teeth should not be even,
perfection is indeed not acceptable.

A man to quarrel is a card game,
if you can play without putting the cards.

Happiness.
Yes,he is happy.
कोई तो हैं,जो बोलता हैं,
सब खामोश हैं,हैं शोर कितना!

इन लिफाफों में हैं सफ़र कितना,
ख़त में इसका ज़िक्र भी नहीं.

तुम्हें कोई भी छु सकता हैं,क्या सोच,
के यु जग की रखैल नहीं हो तुम.

बदल देते हो किसी का भी घर,
क्या जीना भी शिकवा नहीं हैं!

हर साज़ और हर परिंदे का सपना,
सब मर चुके हैं,तुम्हें कुछ भी पता नहीं हैं.

बंजारे रोते हैं तो ताजमहल हैं,
बिक न जाते,जो बस जाते.

किस की भी हिमायत, दर्द हैं,
क्यों न हम हँसना छोड़ दे.

वो मर गया जो जिंदा था,
जो जिंदा हैं वो मर गए.

खाली दीवारों पर लिखना मुश्किल कितना,
काश यु कोरा जी जाये कोई.

इश्क की बात कौन करे.
ये गर्म हैं जमीं,तेरे आगोश से परे,
यु न समझ, के मदहोश हु मैं!
किन ताबूतों को ताला लगा,वो रो दी,
इंसान की तलाश सिर्फ जहन में हैं.

Monday, April 23, 2012

१.
दो प्याली चाय पीना कहा बेहतर,
ज़िन्दगी मैं शक्कर घोलोगे ,मर जाओगे.

२.
नाम देती रहती हो,
जैसे तुम मेरा नाम ही नहीं जानती.

३.
मैं अगर पालतू होता तो बहुत आगे जाता.
अफ़सोस.



४.
कुछ तो आँखें या नशा,
किस रात की बात किस रात.

 

५.
ख्याल ढूँढना,वाहियात पेशा हैं मेरा.
कभी उड़ना,कभी नहीं,
कभी.


६.
तुमसे तो इश्क भी न हुआ,
जिसका तुम दम भरती थी.