Tuesday, May 1, 2012

इजहार किससे करूँ,कोई नहीं,
तु हैं,तुझे कुछ पता नहीं.
 
तुझसे कुछ भी कहूँ,लगता हैं तुझे,
शायरी हैं.
 
सुबह-शाम,दुनिया के बाद,
ले फिर रात आई हैं.
 
खोल दे खुद को ,तुझे देख नहीं सकता,
तेरी उँगलियों मैं जमें खून ,की खुशबू आई हैं.
 
इतने सवाल,कभी खुद से भी नहीं होते,
तुने औरत सी जूस्तजू,बच्चें सी नमी पायी हैं.
 
कोई भी हैं,कही भी हैं,चाहें तु हों,
मैंने खुदा से सिर्फ,खुदखुशी पायी हैं.
 
हज़ार हर्फों का मतलब एक,
हर्फों ने बस दुनिया बसाई हैं.
 
कभी आके,सामने बैठना तुम,
मैं भी देखू,किसने ये ग़ज़ल लिखवाई हैं.
 
ये ज़िन्दगी हैं मौत का मुकदर"शेर",
ये ज़िन्दगी सबने पायी हैं.
 
किसी के बस का काम नहीं हैं,
मेरी रूह ,मैंने खुद उलझाई हैं.
मैं खुद दिखता हूँ आईने में,मुझको,
मैं टुटा हुआ हूँ,आइना झूठा हैं.
 
ख़ामोशी हैं, मैं घर की सोचता हूँ,
काश दुनिया, मुझे मरा समझ ले.
 
इबादत किसकी करूँ,कोई नहीं,
क्यों ना माँ मेरी,मुझे कोख में दबोच ले.
 
वेह्सी बन गया हूँ मैं,एक अव्वल वेह्सी,
मेरे पास कोई आये,मुझे समझ ले.
 
इस्तेहारों की तरह लोग तकते हैं मुझको,
कभी तो जरुरत का सामान,डब्बे मैं छोड़ दे.
 
औरतों का जिस्म अब खाने को भी नहीं ,
"शेर" चलो,दारू भी छोड़ दे.
कुछ ना कुछ नुक्स ही दिखता हैं मुझे खुद में,
एक इंसान ना बन पाया मैं.
 
बरहाल याद हैं इतना,के दो जिस्म थे,
एक को भी ना छोड़ पाया मैं.
 
हर मोहब्बत बिस्तर पर ख़तम हुई,
और बिस्तर से ना उठ पाया मैं.
 
मज्मो का कारवां,ख़ुशी की महफ़िलें, में कभी कहा पूरी पी,
मैकदो में बस, मैं को ही पी पाया मैं.
 
किस बरस का गम,किस बरस बरसा,
सोता रहा,आँखें ना खोल पाया मैं.
 
इन फसलों के बावजूद,तेरी बधाईयाँ,
के कुछ ना बन पाया मैं.