Tuesday, June 5, 2012

वो किताबघर से बहार आया था,
पान थूका और खून बहार.
सोचों अगर वो रोने लगे,
या पूछें खुद से,
की मैं पैदा क्या इस दिन के लिए हुआ था.
उससे याद आया की ज़िन्दगी कितनी हाथ में थी.
आसान.
खून तो आज आया, रोज दोड़ता था अन्दर,
तब तो ख्याल नहीं आया.
काश में सबसे मुंह पर यही खून ठुक दू.
वो जिरह कर रही हैं मुझसे,
रोती हैं.
कहती हैं,मुझे इल्म ही नहीं,
की वो मुझे घंटो घूरती रहती हैं,
बावली.

रो क्यों रही हैं,
चूम क्यों नहीं लेती.
असलियत इस ताल्लुक की ये हैं,
की कोई रहम नहीं करता.
लिखने की पड़ी हैं मुझे,
और ताल्लुक सांस ले रहा हैं,
मेरे हाथ को तकियां बनाये.
एक अघोरी के ,शिव के,
उसका सपना ,जो अब मैं हूँ.
क्या वो सच मैं मेरे लिए,
इस पन्दरहवी मंजिल से कूद सकती हैं.
मेरे बालों को घंटो घुन्ध्ती रही,
उसका जिस्म चिपकता रहा मुझसे,
और वो ऐसे ही सो गयी.
पसीने से तर-बतर,
मेरी छाती से चिपकी हुई.
छोड़ के चला जाऊ?
.
.
.
.
हाँ
मैंने उसे उस दिन के बाद कहा देखा.
जल जल जलता रहा,
शब्द चुतियां हैं.
और मैं हूँ पेन धारी बाबा.
जो मैं लिखता हूँ,
वो सच जो तुम समझ लो,
तो भरम हो जाये,
की मैं नंगा घूमता हूँ.
समाज ने बांध दिया हैं शरीर,
औरतों को दी ब्रा, मर्दों को लंगोट,
ताकि वो खुद को छुपा सके.
इनका और कोई काम नहीं.
बंद नहीं सकता मैं,
फालतू की चीज़ों पे खर्च नहीं कर सकता.
बंद दरवाजे से पार देख सकता हूँ मैं,
बंद दरवाजे आंखों में होते हैं.
तुम दरवाजे के पार कुछ भी देख सकते हो,
माँ देख सकते हो,
नाग का सेक्स,
या खूटे से बंधी हुई बतक.
सुन सकते हो तुम सब,
युही बोलते हैं की,
रौशनी आवाज से तेज़ चलती हैं.
नज़र ख़राब चीज़ हैं,
नज़र हमेशा जल जाती हैं,
काले टिक्के को आँखों के अन्दर कैसे लगाये कोई,
अफीम ना खाए कोई,
सड़क पर नंगा नाचे,
खुद को समझ जाये कोई.
ये साकल किसने बनायीं,
मैं दरवाजे के उस पार देख सकता हूँ,
बेहतर ना हो जो,
दरवाजा खोल जाये कोई.

मुझे नहीं पता में क्या लिखूंगा,
 अब.
 हवा, शायरी या प्रेम नहीं,
 खुद लिखूंगा खुद को.
 रात बात करने आती हैं,
 रात रोज काली नहीं,
 रात शीशें में देखती हैं,
 खुद को.
 शीशें के उस पार लिखूंगा,
शायद.
 सब झूठ लिखूंगा, बेशक.
 पर तुझे लिखूंगा.
 में उससे, वो मुझसे डरता हैं,
 चूहा कही का.
 जान को मौत लिखूंगा अब,
 फांसी को पीली टैक्सी,
 और प्यार को तु लिखूंगा.
 शीशें के उस पर हूँ,
मैं,
 कभी तो सच लिखूंगा.
बरसाती से उठ कर भागी थी वो,
 मुझे नंगी औरतें बहुत उदास लगती हैं.
 कुछ भी तो नहीं बचा अब,
 हर एक गन्दी आदत, हर एक आलस का हिसाब,
तेरी चोटी से होता हुआ गया हैं जमी तक.
 क्या करोगी अब, जो मैं तुम्हें खुबसूरत ना कहू.
 क्या हो, जो मैं उठ जाऊ.
 निकल जाऊ कमरे से बहार.
 लो,
 मैं उठा और निकल गया बहार .
 खुद को समेटों, कपड़े पहनो.
 काश आंसू बन जाये, आँखों के लाल डोरे.
 इससे बस इश्क था मुझसे.
 औरत उम्दा हैं.