Tuesday, May 1, 2012

कुछ ना कुछ नुक्स ही दिखता हैं मुझे खुद में,
एक इंसान ना बन पाया मैं.
 
बरहाल याद हैं इतना,के दो जिस्म थे,
एक को भी ना छोड़ पाया मैं.
 
हर मोहब्बत बिस्तर पर ख़तम हुई,
और बिस्तर से ना उठ पाया मैं.
 
मज्मो का कारवां,ख़ुशी की महफ़िलें, में कभी कहा पूरी पी,
मैकदो में बस, मैं को ही पी पाया मैं.
 
किस बरस का गम,किस बरस बरसा,
सोता रहा,आँखें ना खोल पाया मैं.
 
इन फसलों के बावजूद,तेरी बधाईयाँ,
के कुछ ना बन पाया मैं.

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