Tuesday, June 5, 2012

असलियत इस ताल्लुक की ये हैं,
की कोई रहम नहीं करता.
लिखने की पड़ी हैं मुझे,
और ताल्लुक सांस ले रहा हैं,
मेरे हाथ को तकियां बनाये.
एक अघोरी के ,शिव के,
उसका सपना ,जो अब मैं हूँ.
क्या वो सच मैं मेरे लिए,
इस पन्दरहवी मंजिल से कूद सकती हैं.
मेरे बालों को घंटो घुन्ध्ती रही,
उसका जिस्म चिपकता रहा मुझसे,
और वो ऐसे ही सो गयी.
पसीने से तर-बतर,
मेरी छाती से चिपकी हुई.
छोड़ के चला जाऊ?
.
.
.
.
हाँ
मैंने उसे उस दिन के बाद कहा देखा.

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