Sunday, May 6, 2012

जेब

अब ये शहर भी छोड़ दूंगा मैं,
कभी-कभी सांस नहीं आती.
खुद में खोना भूल गया हूँ,
तनख्वाह हैं.
अपनी जेब कैची से काट दूंगा.
किसी सिली दिवार से होंठ लगा लूँगा,
के सीलन जो कभी थी मुझमें.

मैं पत्थर पर बैठकर आसमान ताकना चाहता हूँ.
नदी की आवाज हो कानो में.
में बस नहीं पाउँगा जंगल में,
ये शहर मुझे छोड़ना ही पड़ेगा.
जेब काटनी होगी.

भगोड़ा बन कर ही जानवर जी सकता हैं,
या मरकर.
मरना और सांस लेना,
दोनों काम एक साथ नहीं कर पाउँगा.
नदी से बातें करना चाहुंगा,
अगर जियूँगा तो जियूँगा
और अगर मर गया तो सिर्फ ,
मर जाना चाहुंगा.
जेब काटना चाहुंगा.

काम से काम तक का सफ़र,
कमरें के अन्दर, कमरें के बाहर.
मैं सब मैदान में करना चाहुंगा.
सब लिख कर बहाऊंगा,
सागर मैं खुद को धुंद्नें जाऊंगा.

खैर अभी कही हूँ दिल्ली से बाहर,
ट्रेन पकडनी हैं पांच बजे की,
चलना चाहुंगा.

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