Thursday, December 31, 2009

कासिद

जिल्ले सुभानी पर जब-जब तेरा नाम आया
कोई कासिद झोले मैं दिल थाम आया
आ कर कहता मेरी रूह से
जो बरसो से कुर्सी पर बैठी जैसे
उसकी ही बाट मैं हो
बाबु जी बाबु जी
पैगाम आया  


मै जैसे मांगी सी मन्नत  सा
पेड़ से बंधा
वो पुराने रंग बिरंगे कपडे का छोर
जो उड़ रहा था,छुटने के लिए पेड़ से
या अल्लाह
आज मन्नत का दिन आया

अब आरजू कौन छाते
कौन हाके फिर ये जिगर पैरों से
जब कासिद ने पढ़ा ये ख़त
तुने बेशक कुछ न लिखा मेरे बारे मैं
फिर भी क्यों हर लफ्ज़ मैं जैसे
बस मेरा नाम आया

मैं सोच ही रहा था
की अचानक शब्द बंद
सुनसान फिर उस खली कुर्सी पर बैठा मैं
कासिद ने फिर कहा
बाबूजी,
लगता हैं आज फिर
किसी और का ख़त,
आपके नाम आया

उसकी घंटी की आवाज
 मद्धम हैं अब
वो दिखाई भी नहीं पड़ता
मैं टटोलता आपा
सामान बांध रहा हूँ सफ़र का
यही सोचता हूँ ..
की ये सामान
इससे बेहतर न  कभी,
मेरे काम आया

कब से मेरे पते पर गलत नाम से
ख़त भेजती हैं वो
इश्क हैं उसे सदियों से
और सदियों से ख़त भेजती हैं वो
पूरी उम्र प्यासा रहा मैं
मुझे कुआँ लिखती हैं वो
कौन कुआँ..कौन  प्यासा
कभी न ख्याल आया...............