Tuesday, October 23, 2012

शांत नहीं हूँ मैं,
शांत नहीं हूँ मैं,
मुर्दा हूँ।

शहर में कब्र हैं मेरी,
जिसे मैं घसीटता हूँ।
कभी बस, मेट्रो,सडको पर,
घसीटता रहता हूँ।
मेरी कब्र रंग बदलती हैं,
नंग हूँ।
कब्र को कब्र कहलाना या लिखना,
मर जाने जैसे लगता हैं।
मुर्दा होना, जिन्दा होने से अलग हैं।
जीना समझोता हैं।
मैं समझोते से डरता हूँ,

मैं मुर्दा हूँ और लिखता हूँ।
ये पैगाम ऐ मोहब्बत  हैं,
मेरे खुद के नाम।
शाम से सेहर तक, हर देहलीज़ तक,
खुद को चाहा मैंने।

हर कब्र के सामने बैठना, और तारीख गिनना,
मुर्दा होने की कब्र मैं।
या पता करना की,
ये कब से धरती में सोचता हैं।

कीड़ो को माँस  नहीं पता,
खुद के दाँतो  की औकात  पता हैं।
हड्डियाँ जिद्दी होती हैं।
कीड़े सिर्फ खाने के लिए बने हैं,
कब्र, मन, दिमाग, इंसान आदि अनादी।
इस मतलब के कई नाम।

ये पैगाम ऐ मोहब्बत हैं,
मेरे खुद के नाम।
कीड़ो को में गंगा की तट पर मिलूँगा,
या गहरायी में,

हम एक दुसरे को जरूर ढूंढ़ लेंगे।
हया से पहले की सुबह का ज़िक्र,
होली में रंगों की दावा का ज़िक्र।
मिठास जो पनपती रही लबों पे,
हर माशूका, हर पाशा का ज़िक्र।
बोतलों के पिघलते  शीशे,
हवा की वफ़ा का ज़िक्र।
ज़िक्र हर शब,हर चुबन,
बाँहों की मदहोश तबाह का ज़िक्र।

ये ज़िक्र फिर नहीं होगा।
बारिशों में  भीग जाओगी  तुम,
जो इतना नम रहोगी।
जल जाएँगी ख्वाहिशें, तुम्हारे होंठ,
हद बह जायेगी आँखों से।
तुम्हारे नाम का यकीन नहीं होगा तुम्हें,
सिमट जोगी खुद के आगोश में।
ठंढे पहाड़, अकेला मन ,
सोचती रहोगी मुझे, मैं तुम्हें।
खुद के बिस्तर से नहीं उठ पाओगी,
जो फिर बारिश होगी।
मैं तुम्हें याद आऊंगा, तुम मुझे याद आओगी।