Sunday, May 6, 2012

पता तो चले

साईकिल ठीक करने के बहाने,
वो रोज देखता था मुझको.
यही ख़राब होती थी उसकी साईकिल.
शायद चार रोज के पैसे जोड़,
घंटी लगवाई थी नयी,
जो मुझमें बजती थी.
 
भरम होता था मुझे उसका,
उसकी साईकिल ख़राब होने का,
घंटी का.
कई आवाजें खून को दिल से बेहतर चलाती हैं.
कुछ ना कुछ सोचती ही रहती थी.
शायद एक साईकिल मेरे पास भी होती,
पता लगाती वो करता क्या हैं.
 
उसकी पतलून पर लगा रंग,
और दो कमीजों के अलावा,
क्या हैं.
कोमी हैं,या पेंटर,
या पुताई करता हैं या अख़बार बाटता हैं.
क्या करूँ,कौन हैं,
समझ में नहीं आता.
 
रोज ही तो आता हैं,
साईकिल ख़राब करने.
एक छोटा सा कागज़ भी नहीं फैका,
बस तकता रहता हैं.
कुछ काम तो हो,बेशक इश्क हो,
पता तो चले.
 

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