Thursday, May 3, 2012

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शिकन हैं हाँ,
और भरम किसी लोक का.
मुझे देखते ही वो घुटनों के बल चलने लगती.
हर कहानी का किरदार मैं ही हूँ,
अभी घुटनों पर हूँ.

स्याह बावली देखी ना होगी,
अभी तक चाँद सूरज नहीं उतरें थे.
बचपन को समझा था,
प्रेत से बचने का टोटका.
इन मंदिरों में अब तलक,
उसकी सांसें,घंटियों पर हाथ की छाया,
और तालाब में देह उसकी,
पकड़ सकते हो.
वो बस अब हर जगह हैं,
आकर और समझ से ऊपर.

किसी ने कई बार देखा उसे,
तालाब में नहाते "नग्न"
हाँ नग्न ,
चाँद सूरज पहने थे उसने.
सफ़ेद साड़ी पहनने से क्या घटता.
पूरी नग्नता से,
धीमी मुग्ध नग्नता ज्यादा कामुक होती हैं.
साड़ी पड़ी थी वहां,जहाँ वो नहीं थी.
चलती थी घुटनों के बल.
नाचते मोर के पंख उधेड़ के,
उसके कूल्हों में जड़ दे कोई.
पाँव भी खूब हैं, पानी जैसे.
नाचने से कहा रुक पाती वो.

औरत ही हैं ये,
अभी अभी मेरे सपनो से कागज़ पर उतरी हैं.
अजीब बात हैं मैं लिखना चाहता हूँ
आज से पहले तो मैंने कभी अपने शब्द नहीं काटें.
कभी नहीं सोचा की ये अच्छा नहीं लिखा,
मैं लिखने के लिए लिखता हूँ आजकल.
 
शांत हैं चित,
ना कुछ कहने को,ना सुनने को,
ना लताडने को,
गालियाँ भी नहीं देता,
शराब भी नहीं पीता,
औरतों से दिल नहीं बहलता,
पागल भी नहीं हूँ अब.
सब बेवजह करता हूँ.
मेरा साया सो रहा हैं,
मैं नहीं.
 
कितनी समझ हैं सबमें,
हर एक की समझ,हर एक से ज्यादा,
काश कोई मेरी समझ खरीद ले,
जो मुझे मुफ्त खरीदेगा,
वो ही असली खरीदार हैं.
मैं उससे देखना चाहुंगा,
उसकी आँखें फोड़ना चाहुंगा.
 
जानवर बनने का अपना मजा हैं.
अंधे सब देखना चाहते हैं,
बहरें सब सुनना.
मैं सोना चाहता हूँ.
मैं हूँ,
खुद का स्वपन.