Sunday, May 6, 2012

पता तो चले

साईकिल ठीक करने के बहाने,
वो रोज देखता था मुझको.
यही ख़राब होती थी उसकी साईकिल.
शायद चार रोज के पैसे जोड़,
घंटी लगवाई थी नयी,
जो मुझमें बजती थी.
 
भरम होता था मुझे उसका,
उसकी साईकिल ख़राब होने का,
घंटी का.
कई आवाजें खून को दिल से बेहतर चलाती हैं.
कुछ ना कुछ सोचती ही रहती थी.
शायद एक साईकिल मेरे पास भी होती,
पता लगाती वो करता क्या हैं.
 
उसकी पतलून पर लगा रंग,
और दो कमीजों के अलावा,
क्या हैं.
कोमी हैं,या पेंटर,
या पुताई करता हैं या अख़बार बाटता हैं.
क्या करूँ,कौन हैं,
समझ में नहीं आता.
 
रोज ही तो आता हैं,
साईकिल ख़राब करने.
एक छोटा सा कागज़ भी नहीं फैका,
बस तकता रहता हैं.
कुछ काम तो हो,बेशक इश्क हो,
पता तो चले.
 

जेब

अब ये शहर भी छोड़ दूंगा मैं,
कभी-कभी सांस नहीं आती.
खुद में खोना भूल गया हूँ,
तनख्वाह हैं.
अपनी जेब कैची से काट दूंगा.
किसी सिली दिवार से होंठ लगा लूँगा,
के सीलन जो कभी थी मुझमें.

मैं पत्थर पर बैठकर आसमान ताकना चाहता हूँ.
नदी की आवाज हो कानो में.
में बस नहीं पाउँगा जंगल में,
ये शहर मुझे छोड़ना ही पड़ेगा.
जेब काटनी होगी.

भगोड़ा बन कर ही जानवर जी सकता हैं,
या मरकर.
मरना और सांस लेना,
दोनों काम एक साथ नहीं कर पाउँगा.
नदी से बातें करना चाहुंगा,
अगर जियूँगा तो जियूँगा
और अगर मर गया तो सिर्फ ,
मर जाना चाहुंगा.
जेब काटना चाहुंगा.

काम से काम तक का सफ़र,
कमरें के अन्दर, कमरें के बाहर.
मैं सब मैदान में करना चाहुंगा.
सब लिख कर बहाऊंगा,
सागर मैं खुद को धुंद्नें जाऊंगा.

खैर अभी कही हूँ दिल्ली से बाहर,
ट्रेन पकडनी हैं पांच बजे की,
चलना चाहुंगा.