Wednesday, May 13, 2009

इमारते-ऐ-मजहब

हसीनाओ ने रोका बहुत,

हम उनकी महफिल से लडखडाते चले.

हर साँस मैं नाम तेरा,

यु हम मैं की हर बूंद का क़र्ज़ निभाते चले।

आवारगी न थी पेशो-पेश लहू में,

तो क्यों हम भवरो से मंडराते चले.

इमारते-ऐ-मजहब से किया बेदखल काफिर कह कर,

जब हम अजान में बेगम-बेगम दोहराते चले।

गम-जुदा हैं इश्क में तो क्या,

हम मुस्कुराते चले.....

हम मुस्कुराते चले...

दिल-ऐ-आबरू की हैं ख्वाहिश एक,

की वो दिन ना आए शेर ,

जब हम नज़र झुका कर चले

जब हम नज़र झुका कर चले .........:-)

इश्क की जंजीरें ...

बद में,गैरत में और मै में,
ख़ुद को नासाज किया हैं मैंने

जब-जब आया नाम तेरा,
सजदे से उठ कर तुझे याद किया हैं मैंने

इश्क की जंजीरें गुलामी नही ,
जन्मो इन पर नक्काशी का काम किया हैं मैंने

इत्मीनान-ऐ-मोहब्बत,मोहब्बत कहा हैं शेर,
यु तो बरसो मैकदों में आराम किया हैं मैंने....

जा ना निकले ..

ना सुपुर्द-ऐ-खाक कर जुबा-ऐ-इश्क
ना इत्मीनान से तमाशा देख
ना लबो से कुछ बोल
कही ये जा न निकले .....:-)