Wednesday, October 24, 2012

हुस्ना

वो कलम के खूटे से बंधा था हकीक़त ही थी जो कुछ था। बहस की बात कोंन करता है हुस्ना हैं वो। हाँ, बरसों से हाथों से स्वेटर बुनता हैं उसके लिए।पागल नहीं हैं, न ही उसे मतलब समझ में आता हैं कभी पागलपन का। क्या-क्या नहीं लिखा उसने हुस्ना के लिए, तीन इश्क से तर शायरी की किताबें। पियूष को क्या पता था की जिस  की गली को उसने सच्चाई बना लिया हैं वो कभी उसे देख भी नहीं पायेगा।

आज चोथे पहर के बाद तक पाकिस्तान एम्बेसी में बैठा हैं ताकि मोहर लगे उसकी तक़दीर को। वो धुंध सके वो   चौथा माकन लाहौर की उस गली में, जहा हुस्ना रहती हैं। अफसरों को कहा पता होगा मोहब्बत की हया का। इल्म ही नहीं होगा, कलम जेहन से रूबरू होकर कैसे लिखी जाती हैं। इश्क में कलम टूटना शगुन होता है सजा नहीं। कितना रोया था, ख़ैर उसे तो रोना भी नहीं आता। वीसा के कागाजों को घूरता रहा और अफसर उसे। उसकी दिमागी हालत और समझ, हर एक का प्रमाण सजा के रखा है प्लास्टिक के एक नील लिफाफे में। साफ़ दीखता है शक। और पियूष को कुछ भी नहीं पता, हुस्ना के अलावा।

अफसर ने पियूष की ओर इशारे से दस्तावेज उठाने को कहा और पुछा

अफसर- कहा हैं तुम्हारा स्वेटर।

पियूष झिझकता नहीं हैं, झिझकना दुनिया के चोचले  हैं, वो झेप गया। उसने अपने पास रखे हुए एक डब्बे को खोला और दिखाया।  अफसर खाली  डब्बा देख कर मंद मुस्कुराया और पियूष से पुछा ।

अफसर- क्या स्वेटर बन गया।

पियूष ने तपाक से कहा।

पियूष - हाँ।

अफसर कुर्सी पर आराम से टेक लगते हुए बोला।

अफसर- चौथी बार आये हो यहाँ। कहा रहती हैं हुस्ना।

पियूष - साहब, लाहौर, बड़ा मोहल्ला, चौथा घर।

अफसर ने आगे झुककर धीमी आवाज में पियूष से कहा।

अफसर- देखो पियूष ये डब्बा खाली हैं, चाहते क्या हो तुम।

पियूष ने एकटक अफसर की ओर  ही देख रहा था। पियूष ने कहा।

पियूष- हुस्ना।

इतना कहते ही पियूष की आँखों से आंसू दफ्तार की मेज पर गिरने लगे। के यूँ जैसे आदत हों हुस्ना की . लाहौर के सिवाए इस 50 की उम्र में वो कही नहीं जा सकता। आज अपने घर भी नहीं। अफसर ने पियूष को देख कर कहा।

अफसर- तुम बहुत अच्छा लिखते हो, जो पैसे तुमने लोगो से लिए हैं, वो लौटा दो।

अफसर की ये बात सुनकर, पियूष ने अपने लाल रंग की लिफाफे पर जांच कर हाथ रखा और कहा।

पियूष- ये नज्में सिर्फ हुस्न के लिए हैं, कोई और नहीं पढ़ सकता इन्हें।

 अफसर एकटक देखता रहा पियूष को और फिर दफ्तर में किसी से चिल्ला कर कहा।

अफसर- लाहौर की फाइल लाना।

अफसर देखता रहा पियूष को और फिर आगे झुककर पियूष से बोला।

अफसर- कोई नहीं रहता उस घर में जिसका तुम ज़िक्र करते हों। बस कुछ पठान रहते हैं किराये पर। वहाँ तो खुश्बू भी नहीं हैं हुस्ना की।

पियूष एकटक अफसर को देख रहा था, वो बोल पड़ा।

पियूष-  खुश्बू तो यहाँ तक आती हैं मुझको।

एक कलर्क ने अफसर को आकर एक फाइल थमायी और कहा।

कलर्क- लीजिये जनाब।

अफसर ने फाइल को खोला और ढूंढ़ कर एक कागज़ निकला। अफसर ने पियूष की तरफ वो कागज़ बढ़ाया और  कहा।

अफसर- ये देखो उस घर का 100 साल का रिकॉर्ड। न कोई हुस्ना थी, और नाही कोई हुस्ना हैं।

पियूष ने बडबडाते हुए कगाज़ को हाथ में  लिया और पता जाचने लगा।

पियूष- बड़ा मोहल्ला, चोथा घर।

पियूष कई देर तक कागज़ को निहारता रहा और बडबडाता रहा।

पियूष- बड़ा मोहल्ला, चोथा घर

अफसर पियूष को इस कागज़ में हुस्ना को ढूंढ़ते इत्मिनान से देखता रहा। अफसर ने धीमे से फिर कहा।

अफसर- तुमने उससे अपने जेहन में रचा हैं, हुस्ना हकीक़त नहीं। तुम न दिल्ली के हो, न लाहौर के। सब दिमागी हकीक़त हैं।

पियूष बडबडाते हुए अफसर से बोला।

पियूष- हकीक़त तो हैं। स्वेटर तो बुना हैं। लोग बोलते हैं किसी को दिखता नहीं ये स्वेटर। आप देखिये मेहरून ये स्वेटर।

अफसर एकटक रोते हुए पियूष को देखता रहा और बोला।

अफसर- जाना चाहोगे पाकिस्तान।

पियूष ने अफसर की तरफ देखा और असमंजस में कुछ भी नहीं कहा। बस मन के भीतर देखता रहा स्वेटर। इतनी देर में अफसर ने पियूष के दस्तावेजो पर मोहर लगा दि और स्वेटर का डब्बा बंद कर दिया। अफसर ने पियूष का पागल खाने का सर्टिफिकेट फाड़ दिया जिस में पियूष को मानसिक पीड़ित बताया गया था। अफसर ने सारी कार्यवाही पूरी होने के बाद पियूष से  कहा।

अफसर- हुस्ना के पढ़ने के बाद ये शायरी मुझे दे देना, मैं छपवा दूंगा।

पियूष बस अफसर की तरफ देखता रहा। अफसर ने अपना सामान उठाते हुए पियूष से कहा।

अफसर- शाम हो गयी हैं, मुझे घर जाना हैं, चलो अब।

पियूष और अफसर एक साथ उठ कर एम्बेसी से बहर आ गये। पियूष खामोश रहा , सोचने  को कुछ बचा नहीं हो जैसे। उसने अपना जिन्न शायद वही छोड़ दिया कुर्सी पर जहा बैठा था। हुस्ना से मिल सकता हैं वो , अब पर। मेरी इन दो पंक्तियों में ही वो दोनों एम्बेसी से बहार सड़क पर आ गए। अफसर ने अपनी गाड़ी खोली और तभी कुछ याद करके कहा।

अफसर- अरे में कुछ भूल गया अंदर। तुम जाओ पाकिस्तान। खुदा करे, तुम्हें तुम्हारी हुस्ना मिल जाये।

अफसर उलटे पाँव दफ्तर के अन्दर चला गया। अफसर ने अपनी मेज के अन्दर से एक मेहरून शाल निकली और वो एम्बेसी से बहार की तरफ बढ़ने लगा। अफसर ज्योंही अपनी गाड़ी के पास आया तो उसने पियूष की शायरी का  लिफाफा अपनी गाड़ी के ऊपर पाया। अफसर ने लिफाफे को ढंग से जांचा और फिर चारों तरफ नज़र दोडाई।
 अफसर रोड के करीब एक भीड़ की तरफ भागा, जहा एक आदमी ने ट्रक के सामने छलांग लगा दी थी और उसके आखिरी लफ्ज़ थे हुस्ना। अफसर ने पियूष को देखा और अपने हाथ में पकड़ी मेहरून शाल  पियूष को उढ़ा दी। अफसर ने पियूष का स्वेटर का डिब्बा रोड से उठा कर सीने से लगाया और मेहरून शाल को देख कर रोने लगा।