Thursday, March 28, 2013

दिमाग का दोष हूँ मैं,
सच नहीं हूँ मै।
पनपते मेंदकों की तरह बरसात में,
हर रात पनपता हूँ मैं।
बरसता हूँ मैं, मेंदकों की तरह,
और उन पर ही गरजता हूँ मैं।
शोर हैं कितना आग़ोश में,
आक्रोश में, खोज में।
जिद हैं पैमाने की चाह।
शराब का दम भरता हूँ मैं।
दिमागी भाषा में सच लिखना,
शायर की कलम का दस्तूर है।

मेरे यार सुन, पहाड़ी सर्दियों में,
हम तेंदुवे  बनने को मजबूर हैं। 

No comments: