Saturday, June 20, 2009

इंतज़ार

सिलसिला ये कलम का खत्म होने लगा हैं
तुम्हें हमसे इश्क होने लगा हैं

कभी मरहम-ऐ-दिल्लगी थी तेरी हँसी, तेरी बातें
अब तो सीधा जख्म होने लगा हैं

रोना चाहता हूँ थोड़ा और बैठ कर तेरी मुफलिसी
क्यों हर बात पर करम होने लगा हैं

जो मैं पीते थे हम तेरे नाम..से रातों॥
सेहर के मैकदों में ,तेरे नाम का चलन होने लगा हैं

कितनी दूरियाँ थी जो बरसो कायम रही
क्यों ये फासला होंठों का कम होने लगा हैं

सो जा ,
ये इंतज़ार की रात शायद लम्बी हैं शेर॥
सपनो मैं बेगम के आने का वक्त होने लगा हैं...:-)

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