कोई कितनी बातें कर सकता हैं दीवारों से,
ये भी बोल पड़ती जो जुबा होती.
कितना आगे तक आई थी दीवारें,
तुम्हें नहीं पता!
बिलकुल चेहरे के सामने,
रेकेट भी हिला था कई बार,गिर जाता
अगर मैंने नज़रें न फेर ली होती.
बस तुम नहीं थी यहाँ,
और बाकि सब था वैसा का वैसा,
पर कुछ भी जिंदा नहीं.
ये दीवारें बोल पड़ती,
ये रेकेट घंटो मुझे युही घूरता रहता,
ये कमरा फिर जिंदा हो जाता,
तुम्हारे आने से.
पर तुम नहीं आई!
चली आओ,
ज़िन्दगी बक्श दो सबको!!
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