हसीनाओ ने रोका बहुत,
हम उनकी महफिल से लडखडाते चले.
हर साँस मैं नाम तेरा,
यु हम मैं की हर बूंद का क़र्ज़ निभाते चले।
आवारगी न थी पेशो-पेश लहू में,
तो क्यों हम भवरो से मंडराते चले.
इमारते-ऐ-मजहब से किया बेदखल काफिर कह कर,
जब हम अजान में बेगम-बेगम दोहराते चले।
गम-जुदा हैं इश्क में तो क्या,
हम मुस्कुराते चले.....
हम मुस्कुराते चले...
दिल-ऐ-आबरू की हैं ख्वाहिश एक,
की वो दिन ना आए शेर ,
जब हम नज़र झुका कर चले
जब हम नज़र झुका कर चले .........:-)