कुछ यूँ ,ज़िन्दगी पे गुज़री हैं,
रात आधी तुझपे,आधी दिवार पे उतरी हैं.
वो गुम हैं,के कोई आयेगा जरुर,
आशिक पे क्या,बहुत ज़माने पर गुजरी हैं.
किन लबों पे हैं तु,तेरा नाम,
चुके शराब गले से पूरी नहीं उतरी हैं..
हर रोज की इबादतों में जिस्म,
नमाज़ी शर्म कर,खुदा पे क्या गुजरी हैं.
रात आधी तुझपे,आधी दिवार पे उतरी हैं.
वो गुम हैं,के कोई आयेगा जरुर,
आशिक पे क्या,बहुत ज़माने पर गुजरी हैं.
किन लबों पे हैं तु,तेरा नाम,
चुके शराब गले से पूरी नहीं उतरी हैं..
हर रोज की इबादतों में जिस्म,
नमाज़ी शर्म कर,खुदा पे क्या गुजरी हैं.
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