ख्वाबो का ज़िक्र,इतना पेचीदा हैं,
हस्र से पहले,उम्र की पूछ!
और फिर ख्वाबों पर दस्तक देती,
तुम्हारी खुद की अंतरात्मा!
अच्छे ख्वाब बुरे ख्वाब,
ख्वाब ख्वाब होते हैं,
इन्सान इन्सान!
बचपन में माँ के सपने आते थे,
भाई,बाबा की पिटाई के!
फिर दूसरी औरतों के,
फिर नंगी औरतों के,
स्वपन दोष तो सबको हुआ होगा,
एक दो बार!
ये उन दिनों की बात हैं,
जब मोर्निंग शो के लिए,
हम दो घंटा इंतज़ार करते थे!
फिर सपने उसके आये,
जिससे इश्क था,
बहुत सपने आये,
उसके साथ बैठना,बातें करना,
ख़ुशी के सपने!
अब आते हैं सपने,सपनो जैसे,
जैसे लोग बोलते हैं,
सपनो जैसे सपने!
नंगी औरतों के सपने,
जलूसों के सपने,
गोलियों के,मारपीट के,
मगर,मुझे मेरे सपने,
अब कभी नहीं आते!
इतनी भीड़ हैं सपनो मैं भी,
के मैं खुद को,
आइना नहीं बना सकता!
किसी ने मेरा आइना,
मेरे दादा के पुराने रेडियो की तरह,
तोड़ के,कबाड़ी को बेच दिया!
मेरे सपने,
हर उस पोटली या तराजू में हैं,
जो बंद हैं!
मेरे टूटे हुए सपने वही कही हैं,
माँ ही ला सकती हैं उन्हें ढूंड के!
माँ ही ला सकती हैं उन्हें ढूंड के!
2 comments:
wow! dreamss!!! i love to talk abt dreamss.... good to find it here too... you know what is the best part of you and your writing? SIMPLICITY! ... Love the way it comes out carefreely on pages...
carry on..!
Tumse behtar kon Samjhega!!Ade!!:)
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